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अब बख्श दिये हैं। कुछ पल मैंने अपनी इस तनहाई पर
भूला कर रंगत मिटा कर संगत जीने लगा हूं फरमाईस पर
रहनुमा मेरा समझता है खुश हूं मैं अपनी अजमाइस पर
न जाने कैसे खोज लिये जीने के नये बहाने को
उदासीन सा रहता हूं अक्सर मैं उसी ख़्वाइस पर
सोचा तुम को मैं मना लूंगा
बैठेंगे फिर से सूरज के ढले उस चांद तले
किस्मत को मगर मंजूर नहीं बैठे फिर से
सूरज के ढले उस चांद तले
इन अजनबीयों की नगरी में खालीपन बहुत सताता है
एक फूल का कहना है मुझसे महबूब के उसके जाने पर
ना जाने क्यों एहसास मेरे उस फूल कितने मिलते हैं
सोचता हूं अक्सर उसको क्या सभी एक से होते हैं
गुमसुम होकर एक दिन मुझसे उस फूल नहीं फिर एक बात कही
जो अपना था महज सपना था टूटेंगे नहीं तो तोड़ेगा रहनुमा मेरा
उस शाम के ढलते जाने पर
अब बख्श दिये हैं। कुछ पल मैंने अपनी इस तनहाई पर
भूला कर रंगत मिटा कर संगत जीने लगा हूं
फरमाईस पर
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